गुरुवार, 13 मई 2010

भाषा की दीवार (मणींद्र नाथ ठाकुर )

अपने समाज के बारे में सोचने-समझने की हमारी भाषा क्या होनी चाहिए? इस प्रश्न पर पहले भी काफी विचार हुआ है। लेकिन आज के बदले संदर्भ में यह सवाल एक बार फिर सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है। भारत एक बहुभाषी समाज है। गुलामी के कारण हमें विरासत में अंग्रेजी भाषा मिल गई है। यों यह एक सुखद संयोग रहा है, क्योंकि दुनिया भर में इस भाषा के विस्तार से हमें वैश्वीकरण के युग में अनायास ही एक सुविधा मिल गई है और शायद इसलिए आज हम एक विश्व-शक्ति बनने का सपना देख पा रहे हैं। लेकिन इस स्थिति ने हमारे समाज में एक संकट भी पैदा कर दिया है, जिसके समाधान के बिना कोई बड़ा सपना देख पाना संभव नहीं है।

प्रश्न यह है कि हम अपनी भाषायी बहुलता के साथ क्या सलूक करें। कुछ लोग तो मानने लगे हैं कि सभी भाषाओं को समाप्त कर अंग्रेजी को एकमात्र भाषा के रूप में स्थापित कर देना चाहिए। लगभग सभी लोग यह मानते हैं कि अंग्रेजी ही देश में कुछ मान-सम्मान पाने का एकमात्र रास्ता है। यहां तक कहा जा रहा है कि भारतीय समाज की समझ भी केवल अंग्रेजी के सहारे बन सकती है। इस तर्क को समझना और इसकी जांच करना जरूरी है, क्योंकि इस तर्क के आधार पर बनी नीतियों से एक बड़ा तबका जो अंग्रेजी शिक्षा से दूर है, हाशिए पर रहना उसकी नियति हो गई है। हमारा मकसद यहां समाज विज्ञान के मद्देनजर इस बात की जांच करनी है।

बात की शुरुआत भारत के लब्धप्रतिष्ठ और ऊंचे बजट वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से की जाए। इस विश्वविद्यालय की एक महत्त्वपूर्ण पहचान इस बात से है कि इसमें समूचे देश से विभिन्न जातियों, धर्मों, वर्गों, भाषाओं के छात्रों को स्थान मिलता है। इसके लिए यहां नामांकन की एक खास नीति बनाई गई है। माना जाता है कि इस बहुलता के कारण यहां समाजशास्त्रियों को पूरे देश को लेकर एक समग्र दृष्टिकोण बनाने में सुविधा होती है। सुना है कि ऑक्सफोर्ड जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में भी यह चर्चा होने लगी है कि ऐसी बहुलता समाज विज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है। लेकिन इस तथाकथित बहुलता के गहरे उतरने पर कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं।

वैसे तो इस विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में किसी भी भारतीय भाषा में लिखने की इजाजत है, लेकिन आम धारणा यह है कि गैर-अंग्रेजी वाली उत्तर पुस्तिकाओं के प्रति उनका रवैया संदेहजनक है। आंकड़े भी कुछ ऐसा ही संकेत देते हैं, क्योंकि भारतीय भाषाओं में लिख कर प्रवेश पाने वाले छात्रों की संख्या नगण्य रहती है। इसका कारण शायद यह भी है कि भारतीय भाषाओं में जो समाज विज्ञान में पढ़ाया जा रहा है उसका स्तर चिंतनीय है। लेकिन यह संदेह भी जताया जाता है कि कहीं शिक्षकों के बीच कोई अघोषित सहमति तो नहीं है कि उनकी उत्तर पुस्तिकाओं में इतने कम अंक दिए जाएं कि पिछड़ेपन के लिए मिलने वाले रियायती या प्रोत्साहन-अंकों को जोड़ने पर भी उन्हें प्रवेश न मिल पाए। अगर ऐसा है तो यह भाषायी बहुलता की समस्या को सुलझाने का एक अद्भुत तरीका है!

एक बात तो सही है कि अध्ययन-अध्यापन की ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध है। विज्ञान विषयों के लिए ऐसा कहना ज्यादा सटीक है। लेकिन यह चिंता का विषय है। क्या कारण है कि अपने ही समाज की समझ हम अपनी भाषा में नहीं बना पा रहे हैं। दरअसल, हमारे समाजविज्ञानियों पर अंग्रेजीभाषी विश्व का कुछ ऐसा नशा छाया हुआ है कि वे पहले वहां के सिद्धांतों का चयन करते हैं, फिर यहां के यथार्थ को उसमें समाने की कोशिश करते हैं। एक तरह से यथार्थ के लिए सिद्धांत की खोज के बदले सिद्धांत के लिए यथार्थ की खोज होती रहती है। हमारे लिए उसकी क्या उपयोगिता है, यह सवाल उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। ज्ञान का यथार्थ से ऐसा अलगाव बड़ा विचित्र है।

अंग्रेजी बोलने वाले उच्चवर्गीय लोगों को लगता है कि ज्ञान का केंद्र अब भी यूरोप है। अंग्रेजी माध्यम वाले छात्रों और शिक्षकों के लिए तो यह ठीक है, क्योंकि उनके जीवन का उद्देश्य विदेशों के विद्वानों से मान्यता प्राप्त करना या वहां जाकर करिअर बनाना होता है। गौर से देखने पर ऐसा लगता है कि यूरोप ज्ञान का केंद्र है और दिल्ली के विश्वविद्यालय उसकी परिधि और देश के बाकी विश्वविद्यालय परिधि के भी परिधि हैं। ज्ञान केंद्र से परिधि तक पहुंचते-पहुंचते क्षीण हो जाता है। ऐसे में अध्ययन-अध्यापन की सामग्री के लिए अंग्रेजी पर निर्भर रहना ही होगा।

अंग्रेजी समर्थकों के मुताबिक भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञान जानने वाले छात्रों का कोई भविष्य नहीं है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ऐसा कहना ठीक होगा। अगर ठीक भी हो तो यह छात्रों के चुनाव का मामला है। बहुत-से छात्र भाषा के नाम पर अच्छे विश्वविद्यालयों से बाहर ही रहते हैं। आज के युग में वैसे भी किसी एक भाषा से काम नहीं चलने वाला है। भारतीय भाषाओं में लिखने का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी नहीं पढ़ने की कसम खा ली गई है। सवाल खुद को संप्रेषित करने का है। सच तो यह है कि कुछ वर्षों में सबसे उज्ज्वल भविष्य द्विभाषी लोगों का ही होगा। अब तो पेंगुइन जैसे प्रकाशन भी हिंदी में पुस्तकें छापने लगे हैं। हिंदी का अखबार अब भारत का सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार हो गया है। भारतीय भाषाओं के सिनेमा उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

अंग्रेजी समर्थकों का एक और तर्क है, शिक्षा का स्तर खराब होने को लेकर। ध्यान से देखें तो यह पुरानी दलील है। जब भी भारत की विभिन्न संस्थाओं को आम आदमी के लिए खोलने की कोशिश की जाती है, यह तर्क सुनने को मिलता है। चाहे वह अनुसूचित जाति, जनजातियों, पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का सवाल हो या भारतीय भाषाओं के शैक्षणिक स्तर का मुद्दा। सवाल है स्तर का मापदंड क्या है? मापदंड यह है ही नहीं कि किसी छात्र को अपने समाज का ज्ञान कितना है या उसकी विश्लेषणात्मक क्षमता कितनी है, बल्कि मापदंड यह है कि चंद पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के विषय में उनका ज्ञान कितना है। वैसे कई विद्वान आजकल खुलेआम पूछने लगे हैं कि भारत में समाज विज्ञान में मौलिक सोच क्यों नहीं मिलता है। लेकिन उनका ध्यान इस ओर कम जाता है कि भाषायी असमानता के कारण बहुत-सी प्रतिभाओं की असमय हत्या हो जाती है। आज भी सामाजिक अध्ययन में मौलिक सोच को कितना महत्त्व दिया जा रहा है यह शोध का विषय है।

विडंबना यह है कि भारत में राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों की भाषा तो भारतीय है, लेकिन उन पर शोध की भाषा केवल अंग्रेजी है। इससे एक समस्या यह हो रही है कि इन आंदोलनों में जिन सिद्धांतों की खोज हो रही है उसकी ओर यहां के समाज विज्ञानी आकर्षित नहीं हो रहे हैं। कई बार तो वे यह मानते ही नहीं कि जन आंदोलनों में भी कुछ सिद्धांत रचने की क्षमता होती है। कुछ छन-छन कर कभी-कभी प्रकाशित हो जाता है तो लोगों को आश्चर्य होता है। गौर करने की बात है कि पूरा का पूरा दलित साहित्य और दलित चिंतन दुनिया को भारतीय भाषा की बेहतरीन देन है। स्वतंत्रता आंदोलन ने भी ऐसा ही कुछ किया है। कुल मिला कर यह मान लेने में कोई उज्र नहीं होना चाहिए कि भारतीय भाषाएं व्यवस्थाविरोध की मुखर भाषाएं रही हैं। जबकि अंग्रेजी राजपाट की भाषा है। हां यह सच है कि अंग्रेजी एक संपर्क भाषा है। लेकिन किनके बीच?

इस संदर्भ में सबसे आश्चर्य की बात यह है कि विभिन्न विचारधाराओं के विद्वानों में एक अद्भुत सहमति है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों के ऊंचे पदों पर बैठे विद्वान लाख मतभेद के बावजूद इस बात पर एकमत हैं कि भारतीय भाषाओं की उपयोगिता समाप्त हो गई है; ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। यह दिलचस्प है कि सांस्कृतिक बहुलवाद के पुरोधा विद्वान भी भाषा का सवाल आते ही अंग्रेजी की खोल में सिमट जाते हैं। दलितों, आदिवासियों और शोषितों के दूसरे तबकों की पीड़ा के अनुभवों को सैद्धांतिक स्तर तक ले जाने वाले चिंतक भी कई बार भाषा के नाम पर हुए अपमान के दंश को समझ पाने में दिक्कत महसूस करते हैं। जबकि उन्हें भी मालूम है कि भाषा, जाति और वर्ग के सवाल आपस में जुड़े हुए हैं। भाषायी राजनीति की समझ रखने वाले विद्वान भाषा के जनतांत्रिक सवाल को राजनीतिक सवाल कह कर टालना चाहते हैं।

इस बात को स्पष्ट कर देना ठीक होगा कि आज भाषा का सवाल 1960 के दशक के भाषा के सवाल से अलग है। अब मुद्दा यह नहीं है कि अंग्रेजी सीखनी है या बिना उसके काम चल सकता है। हमें यह मान कर चलना चाहिए कि अंग्रेजी का ज्ञान हमारी शक्ति है। हमें अंग्रेजी को गांव-गांव तक पहुंचाना है। हर व्यक्ति को इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त करने की सुविधा होनी चाहिए। लेकिन हम और भी कई भाषाओं को जानें। अपनी भाषा के अलावा दूसरी भारतीय भाषा का भी काम लायक ज्ञान हो तो अच्छा है। लेकिन भाषा का जो संबंध समाज के वर्गीय विभाजन से है उसे तोड़ना होगा। हर व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता से रचनात्मक हो पाए, इस दृष्टिकोण से भाषा के सवाल पर फिर से सोचना होगा। विश्वविद्यालयों को भी हिंदी-अंग्रेजी के विवाद से बाहर निकलना होगा। जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय को इस कार्य के लिए आगे आना चाहिए। यह बहुत मुश्किल काम नहीं है। हां, अंग्रेजी भाषा के प्रति अपनी समझ हमें बदलनी पड़ेगी। अगर कोई व्यक्ति तीन महीने में जर्मन या रूसी भाषा में पारंगत हो सकता है तो अंग्रेजी में क्यों नहीं? अंग्रेजी तो अब हमारे यहां बचपन से पढ़ाई जा रही है, फिर भी किसी को इस भाषा में पारंगत होने में बीस वर्ष क्यों लग जाते हैं? क्यों भारत में अंग्रेजी पढ़ाने की दुकानें इतनी चलती हैं। क्यों नहीं विद्यालयों में आधुनिक तरीके से भाषाओं की शिक्षा दी जा रही है?

आग्रह केवल इतना है कि भाषा के कारण अपमान सहने की आवश्यकता न हो। किसी छात्र का अनुभवजन्य ज्ञान इस वजह से व्यर्थ न चला जाए कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। अंग्रेजी का जो राजपाट के साथ संबंध है उसे विच्छेद किया जाए। अंग्रेजी अन्य भाषाओं के साथ जनता की भाषा हो जाए। भारत अगर कभी विश्व में अपना स्थान बना चाहता है तो भाषायी बहुलता को इसका सामर्थ्य समझना चाहिए। हर भाषा में प्राप्त ज्ञान हर बुद्धिजीवी को उपलब्ध हो सके ताकि हम अपनी परंपरा की पूंजी को उपयोग में ला सकें।

लेखक : मणींद्र नाथ ठाकुर, जनसत्ता, 20 नवंबर, 2009

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इतनी मौलिक यह पहल रूकी क्यों है? कृपया लिखते रहें। देर सबेर देश चेतेगा।

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  2. हम चाहते हैं कि हमारी भाषा हिन्दी ही रहे जिसे प्रथम स्थान प्राप्त करने में मदद करने की आवश्यकता है।
    हम सभी को अपने दिमाग से यह वहम हटा देना चाहिए कि अगर अंग्रेजी भाषा नहीं आती हैं तो अपमान का सामना करना पड़ सकता है।

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