गुरुवार, 13 मई 2010

हिन्दी में समाज विज्ञान की दिक्कतें - नरेश गोस्वामी

हिन्दी के बौद्घिक जगत में यह मुद्‌दा जब तब उठता रहता है कि समाज विज्ञानों के क्षेत्र में हिन्दी अनुपस्थित क्यों है। या कि हिन्दी में समाज विज्ञानों की मौलिक पाठ्‌य पुस्तकों और शोध का अभाव ङ्कयों है? लेकिन इस सवाल पर चिंता के स्वर इतने लंबे अंतराल के बाद उठते हैं कि तब तक लोगबाग यह भूलने लगते हैं कि इससे पहले क्या बात कही गई थी। कई बार विश्वविद्यालयों और सामाजिक अध्ययनों के प्रसिद्घ शोध केन्द्रों में विचारसत्रों और सेमिनारों का भी आयोजन होता है। उस समय तो एकबारगी यह लगता है कि हिन्दी में ज्ञान निर्माण की यह पहल अब शायद एक निश्चित परिणति तक पहुंच जाए। लेकिन धीरे धीरे समूची प्रक्रिया भटक जाती है। वक्ता संकल्प भूल जाते हैं और हिन्दी के उत्साही किसी और काम में व्यस्त हो जाते हैं। यह तय है कि ऐसी किसी पहल की लानत-मलामत करने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। ऐसे में सिर्फ यह पूछा जा सकता है कि हिन्दी के जिन नियामकों के पास पद, पहुंच और संसाधन होते हैं वे एक पहल से दूसरी पहल के बीच संगठित या व्यवस्थित ढंग से कितना काम करते हैं।

इसी तरह की एक पहल फिर शुरू हो रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों ने स्नातक और उससे ऊपर के छात्रों के लिए हिन्दी में पाठ्‌यक्रम तैयार करने की प्रक्रिया हाथ में ली है। इसके लिए फिलहाल क्षेत्रीय विश्वविद्यालय के पाठ्‌ययक्रमों का जायजा लिया जा रहा है। लेकिन सामग्री जुटाने की शुरूआती कोशिशों से यह तथ्य जाहिर हुआ है कि क्षेत्रीय विश्वविद्यालय में पढ. रहे अधिकांश छात्रों को इस बात का पता तक नहीं होता कि पाठ्‌य पुस्तकों और कुंजी या गैस पेपर्स में क्या फर्क होता है। ज्यादातार छात्रों के लिए शैक्षिक पुस्तकों की दुकानों पर मिलने वाली ये कुंजियां ही संबंधित विषय की आधार सामग्री का काम करती हैं। ऐसे में यह कहना मुश्किल हो जाता है कि हिन्दी में स्तरीय पाठ्‌य पुस्तकों का अभाव ज्यादा बडा संकट है या हिन्दी में पूरा समाज विज्ञान ही संकटग्रस्त है।

कहना जरूरी नहीं है कि छात्रों की कुंजियों पर यह निर्भरता रातों रात पैदा हो जाने वाली घटना नहीं है। इसके पीछे वार्षिक परीक्षा के आयोजन की वह रूढि. काम करती है जो विद्यार्थियों से सिर्फ कुछ रटे-रटाए दीर्घ या कुछ लघु उत्तरों के अलावा और कुछ नहीं चाहती। परीक्षा प्रणाली की रूचि यह जानने में कतई नहीं होती कि छात्रा जिन बातों, तथ्यों और सूचनाओं को उत्तर के रूप में लिख कर आए हैं, वे उनकी सामाजिक दृष्टि या बोध का भी हिस्सा हैं या नहीं। इस विसंगति की तह में जाएं तो यह जाहिर होता है कि क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के अधिकांश अध्यापक गण खुद को न विषय के प्रति जवाबदेह मानते हैं न छात्रों के प्रति। असल में वे जिस प्रक्रिया से चुनकर आते हैं उसमें उनसे यह जानने की कोशिश भी नहीं की जाती कि आने वाले वर्षो में वे अपने विषय और विद्यार्थियों को किस तरह समृद्ध करेंगे। कुछ अपवादों को छोड दे तो ज्यादातर संस्थाओं में अध्यापक एक बार नोट्‌स बनाकर उन्हें सेवानिवृत्ति तक चलाते रहते हैं। अध्यापकों में यह काहिली शायद इसलिए पनपती है क्योंकि उनके कार्य के मूल्यांकन की अभी तक कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है।

लेकिन समाज विज्ञानों के अध्ययन और अध्यापन का एक पहलू और है जिस पर संजीदगी से विचार नहीं किया जाता। आमतौर पर माना यह जाता है कि विषय के रूप में समाज विज्ञानों का चुनाव वही छात्र करते हैं जो प्राकृतिक या शुद्घ विज्ञान को समझ पाने में विफल रहते हैं। यह धारणा समाज में इतने व्यापक स्तर पर पसरी है कि अपने विषय का लगन और चाव से अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी अकसर हीनता का शिकार हो जाते हैं। सामाजिक तौर पर गैरजरूरी घोषित किए जाने वाले और बाजार के लिहाज से अनुत्पादक समझे जाने वाले इन विषयों को पढना छात्र के लिए किसी लांछन से कम नहीं होता। ऐसे में छात्रों की भविष्य के शोधकर्ता या अपने विषय में लगातार रूचि रखने वाले प्रतिबद्घ अध्यापक के रूप में कल्पना करना बेहद बेमानी लगता है।

हिन्दी में मौलिक पाठ्‌य पुस्तकें तैयार करके शोध और चिंतन की राह बनाना इसलिए भी आसान नहीं हैं क्योंकि हिन्दी माध्यम में पढ.ने वाले छात्र जिस सामाजिक वर्ग से आते हैं उसमें छात्रों के सामने अपने विषयों का व्यवस्थित ज्ञान हासिल करने और मौलिकं चिंतन-मनन का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बजाए कोई भी नौकरी पाना ज्यादा बडी चिंता होती है।

(दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

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