बुधवार, 21 अगस्त 2013

हिन्दी प्रदेश में किताबों से दोस्ती

भारत में लगभग साठ करोड़ जनता लिखने-पढ़ने के काम में हिन्दी को अपनी भाषा मानती है। इस हिन्दी प्रदेश में सोच-विचार की क्या स्थिति है? शिक्षा की व्यवस्था और गुणवत्ता कैसी है? यह अपने वर्तमान को लेकर कितनी सजग है? अपने भविष्य को गढ़ने की इसकी क्या तैयारी है? खुद से इस तरह के सवाल करना जरूरी है। इन सवालों का सामना किसी समाज में सच्ची प्रगति को संभव बनाता है।

शिक्षा ने हमारे जीवन में एक खिड़की खोलती है। इससे एक नई रोशनी हमारे अंदर आती है। हमारे अंदर संभावनाआंे के बीज छुपे हैं, उनसे अंकुर फूटते हैं, वे पल्लवित हो उठते हैं। शिक्षा सही से शुरू होती है तो आजीवन चलती है। संभावनाओं के बीज कभी खत्म नहीं होते। उन्हें जब-जब हवा-पानी मिलता है, वे पल्लवित होते रहते हैं। ये हवा-पानी कहाँ से मिलता है। एक अच्छा शिक्षक, एक सच्चा मित्र या जीवन का कोई सघन अनुभव उस बीज के लिए हवा-पानी का काम कर सकता है। लेकिन वह कौन मित्र है जो मेरे अंदर प्रगति को, जानने की, सीखने की हर कोशिश में हर पल मेरा साथ दे सकता है। वे किताबें हैं। किताबें सच्ची दोस्त हैं।

सफदर की एक कविता याद दिलाती है कि - ‘‘किताबों में चिडि़या चहचहाती है / किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं / किताबों में कितना बड़ा संसार हैं / किताबों में ज्ञान की भरमार हैं / क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे? / किताबें कुछ कहना चाहती हैं। / तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।’’ ये कविता हमें बिछुड़े हुए दोस्तों की याद दिलाती हैं। हम देखते हैं कि हमारे चारों ओर घर-बाजार में, स्कूल-काॅलेजों में अच्छी किताबों की मौजूदगी कितनी है। हिंदी प्रदेश के कस्बों में घूमते हुए लगता है कि हम एक मित्रहीन जीवन जी रहे हैं। हमने अपने चारों ओर एक ऐसी संसार रच डाला है जिसमें किताबों के लिए जगह और समय दोनों ही न के बराबर हैं। हम एक ऐसी पढ़ाई पढ़ रहे हैं जिसमें किताबों का मतलब केवल स्कूली पाठ्य पुस्तकंे हैं। ये पाठ्य पुस्तकें कुछ इस तरह से बनाई जाती हैं कि वे अक्सर अरुचि पैदा करने वाली होती हैं। जीवन में छुपे सतरंगी सच्चाई को जानने-समझने का सुख इन किताबों में कम ही होता है। ये किताबें भी थोड़ी-बहुत दोस्त हो पातीं लेकिन स्कूल रंग-ढंग ने इन्हें पीछे कर कुंजी-गाइडों और गैस-पेपर जैसी चीजों की भीड़ लगा दी।

किताबों की दुनिया का एक बड़ा हिस्सा स्कूल-कालेज से बाहर भी होता है। पूरा हिंदी प्रदेश इस दुनिया के प्रति बेहिसाब लापरवाह है। अच्छी किताबों का लिखा जाना, छपना, छपने के बाद पाठकों तक पहुँचना सब कुछ सरकार की लापरवाही और समाज की पस्त-हिम्मती का शिकार है। अमीर खुसरो, कबीर से लेकर प्रेमचंद तक की परस्परा को जन्म देने वाला हिंदी प्रदेश आज आत्म-विस्मृति का शिकार है। हिंदी प्रदेश के अच्छे कस्बों में भी एक ऐसी दुकान ढूंढ़नी मुश्किल होती है जहाँ अच्छी किताबें देखी-खरीदी जा सकें। आज हिन्दी जगत की क्या स्थिति है? जो अनुभवों की सघनता में जीता है उसके लिए पढ़ना-लिखना मुश्किल है। जो लिखता है उसके लिए छापना मुश्किल हो जाता है। जो छापता है उसके लिए बेचना मुश्किल है। जो पढ़ना चाहता है वह खरीद नहीं पाता।

इस दुष्चक्र की हर कड़ी में बदलाव जरूरी है। और यह समझना जरूरी है कि मैं इनमें से एक न एक कड़ी से जुड़ा हूँं। यह यकीन जरूरी है कि एक छोटा सा बदलाव मुझे भी लाना है। पहला कदम इसी संकल्प से शुरू हो सकता है कि मुझे भी पढ़ना है - लिखना है, किताबों को खोजना और खरीदना है। आज का हिंदुस्तान युवा भारत है। हिंदी प्रदेश में पच्चीस करोड़ युवा हैं। वे असीम ऊर्जा से भरे हैं। हर युवा आज जो है उससे सौ गुना अधिक कुछ हो सकता है। इस ऊर्जा का विकास और उन्मेष हो इसमें किताबें जरूरी दोस्त हैं। छोटी-छोटी कोशिशों से इस सुंदर संभावना को सच बनाया जा सकता है। हम किताबों के लिए अपने मन में, घर में, बाजार में, स्कूलों में जगह बनाएँ। किताबें मन-आत्मा का भोजन हैं। अपने अंतरजगत को पुस्तकों का उपहार दें। इन कोशिशों का सिलसिला बन निकलें तो इसके परिणाम इतने गहरे और व्यापक होंगे कि अभी केवल कल्पना ही की जा सकती है। एक नया भविष्य जन्म ले रहा है, वह हमें अपनी ओर बुला रहा है।

(अमर उजाला में १८ अगस्त को प्रकाशित)

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