सोमवार, 14 दिसंबर 2009

आर्थिक न्याय के शेष प्रश्न और ज्ञानशास्त्र का मौन

गन्ने के उचित मूल्य के लिए किसानों के हालिया धरने-प्रदर्शन ने आर्थिक लोकतंत्र से जुडे़ कुछ जरूरी सवालों की ओर इशारा किया है। राजनीतिक प्रदर्शन कुछ नारो और समस्याओं की ओर ध्यान खींचते है। लोकतंत्र के लिए यह एक जरूरी भूमिका है। इसके बाद का काम उस वर्ग का होता है जिन्हें बौद्धिक या नीति-नियंता कहा जाता है। दिल्ली में होने मात्र से अपने को 'राष्ट्रीय' कहने वाले मीडिया ने किसानों के धरने-प्रदर्शन में बेहूदगी और असभ्यता के निशान ढूंढे हैं। यह उस मानस का विस्तार है जो कुछ जातियों को गालियों और गांव-किसान से जुडे शब्दों को अज्ञानता के अर्थ में इस्तेमाल करता है।

दरअसल भाषा की संभावनाओं का यह अवमूल्यन एक खास तरह के दृष्टिदोष और नासमझी से संभव होता है। इस दृष्टि पर शहरी उच्चवर्गीय और नव-सामन्ती होने का आरोप है। साफ देखा जा सकता है कि यह रवैया भाषा के अपहरण तक सीमित नहीं रहता। यह दृष्टिदोष आगे बढ़ कर शिक्षा और ज्ञान की ऐसी अवधारणाओं और संरचनाओं को जन्म देता है जो कुछ वर्गीय-हितों और अभिजात्य स्वार्थों को छुपाने और बढाने के काम आती हैं। ऐसी अवधारणाओं के जोर पर ही बौद्धिक कसरत पर टिकी और हस्त-शिल्प तथा रचना कर्म से कटी शिक्षा को पाला-पोसा गया। इस शिक्षा ने आदमी को सहभागिता और सृजन के आनन्द से दूर कर या तो अतिभोग तक पहुंचा दिया या अभाव तक। विषमता बढाने वाली इसी प्रक्रिया को पंख देने का काम मास मीडिया न किया है। शिक्षा और मीडिया की यह वर्गीय-दृष्टि एक ऐसी सोच और जीवन-शैली को जन्म देती है जो लोकतंत्र और न्याय के मूल्यों के खिलाफ जाती है। आपसी समझ, विश्वास और प्रेम की जगह द्वेष और द्वंद्व पर टिकी यह जीवन-शैली उच्च वर्ग के लोगों को भी निरन्तर और टिकाऊ सुख नहीं बल्कि रोग और शोक ही देती है।

पुराने मशवरे से दिखने वाले इस तर्क को कुछ नए तथ्यों को रोशनी में देखा जाए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के ताजे अध्ययनों के अनुसार भारत में हृदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्त चाप और मानसिक रोगों की बढ़वार बहुत गंभीर स्थिति पर पहुंच गयी है। भारत में इस समय पांच से आठ करोड लोग हृदय रोगों से, लगभग तीन करोड मधुमेह से और दो करोड से ज्यादा मानसिक रोगों से पीडि त हैं। हायपर टेंशन के बारे में एक अध्ययन बताता है कि पिछले छः दशकों में उच्च रक्तचाप के मामलों में शहरों में तीस गुना और गावों में दस गुना बढोत्तरी हुई है। जाहिर तौर पर ये सभी रोग एक खास जीवन-शैली से जुडे हैं। इन आंकडों के गहरे निहितार्थों में जाने की जरूरत है। रोग और शोक की खेती करने वाली शहरी उच्चवर्गीय और नव-सामन्ती जीवन-शैली के बारे में यह आरोप गलत है कि इसने केवल दूसरे वर्गों का शोषण किया है। भारी आर्थिक विषमता के बीच उच्च उपभोग की जीवन-शैली स्वयं अपने, समाज और प्रकृति सभी के लिए असंतुलन का कारण बनती है। भूख से मरते किसान बच्चे और ज्यादा खाकर मधुमेह और हृदय रोग के शिकार होते अमीर क्या एक ही तसवीर के हिस्से नहीं हैं।

आइये इस बदरंग होती तस्वीर में कुछ उम्मीदों के रंग भरने की कोशिश करें। विश्वास करें कि राजनीति और शिक्षा का उपयोग क्षुद्र स्वार्थों के लिए नहीं बल्कि व्यापक न्याय के लिए किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन और परमाणु युद्ध जैसे खतरे याद दिलाते हैं कि व्यक्ति का स्वार्थ और व्यापक न्याय एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। लेकिन शुरूआत कहां से हो। आइये, अपनी सोच, मान्यताओं और जीवन-शैली को जांचने की कोशिश करते हैं। इसके लिए किसानों के मामले पर वापिस आया जाए। क्यों न उन कारणों को समझा जाए जिनसे किसान अपने घर से उखड़ कर-उजड कर प्रदर्शन के लिए मजबूर होते हैं।

क्यों न जाम में फंसे शहरी लोगों के साथ-साथ ठिठुरती ठंड में खुले आसमान के नीचे पडे़ किसानों की पीड ा को भी समझा जाए? नारे तो केवल इशारे करते हैं, उकसाते हैं। क्या इस प्रसंग को एक नई समझदारी और सम्वाद तक आगे ले जाया जा सकता है? हितों में कई बार संघर्ष होते हैं लेकिन समन्वय भी तो हो ही सकते हैं। शहर और गांव दो विरुद्ध हैं, ऐसा कहा जाता रहा है। लेकिन क्या शहर में गांव और गांव में शहर नहीं पसर गए हैं? क्या हर शहरी मानस का एक कोना गांव की मिट्‌टी-पानी के लिए नहीं तड पता है? क्या हर ग्रामीण मन की चाहत नहीं होती है कि वह भी सुविधाओं के अंबार के बीच से एक बार गुजर ले। क्या विरुद्धों में भी सामन्जस्य नहीं हुआ करता है?

इस मामले की राजनीति और आर्थिकी को थोड़ा दूर खड ा होकर देखा जाए। आइये, गांव बनाम शहर के मामले की राजनीति को समझने की कोशिश की जाए। किसान बनाम व्यापारी बनाम नौकरी शाही की आर्थिकी के पेंच को खोलते हैं। गन्ने का मूल्य किसान और गांव की आर्थिकी की व्यापक सच्चाई का एक हिस्सा है। परिपेक्ष्य के साफ होने से कई मामलों को समझने में मदद मिलेगी। आखिर किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य किस आधार पर तय किया जाता है। किसी उपज में कुछ साधन और कुछ श्रम लगता है। बीज, पानी, औजार और जमीन जैसे साधनों में लगने वाली लागत बाजार से तय होती है। उपज में किसान की जो मेहनत लगती है उसका मूल्य सरकार तय करती है। किसान की मेहनत का मूल्य ही उसकी कमाई होती है। इसीलिए यह समझना एक जरूरी कदम है कि सरकार किसान की मेहनत का मोल कैसे तय करती है।

सरकारी नौकरी पेशा लोगों के वेतन सुविधाओं आदि के बारे में वेतन आयोग तय करता है। खेती-किसानी से जुड़े लोगों को उनके काम का क्या मूल्य मिलना चाहिए यह सरकार न्यूनतम मजदूरी और उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते समय करती है। अर्थशास्त्र के सामने सवाल होता है कि 'किसी व्यक्ति की मेहनत का मूल्य क्या होना चाहिए'। अगर अर्थशास्त्र को बिना किसी न्यायबोध के अकेला छोड दिया जाए तो उसके लिए यह सवाल बहुत जटिल बन जाता है। आर्थिक न्याय और लोकतंत्र के संदर्भ में ही ये सवाल सही दिशा पाते हैं। 'हिंद स्वराज' में गांधी ने इस सवाल से सीधे मुठभेड करते हुए कहा कि किसी वकील को एक मजदूर से ज्यादा क्यों लेना चाहिएं।

मार्क्सवादी सिद्धांत तो पूरे पूंजीवादी संचय की जड़ ही श्रम से उपजे अतिरिक्त मूल्य के शोषण को बताता है। फुले से लेकर अम्बेडकर और लोहिया तक राजनीतिक दर्शन का प्रारंभ भले ही सामाजिक समता से हो लेकिन उसमें आर्थिक न्याय का सवाल अनिवार्यतः जुडा है। पूंजीवादी उदारवाद में भी एक धारा ऐसी रही है जो एक सीमा से ज्यादा गैर-बराबरी को स्वयं पूंजीवाद के लिए खराब मानती है। लेकिन उपनिवेशवाद के अंतर्गत इन सबसे अलग तरह की एक आर्थिकी पनपती है। उपनिवेशवाद शासित समाजों की उत्पादकता का कम से कम समय में अधिक से अधिक शोषण करने की प्रेरणा पर टिका होता है। हर उपनिवेशवाद को पता होता है कि उसे एक दिन समाप्त होना है। उसका उतावलापन अपने अवसान के सतत भय से और बढ जाता है।

भारत में उपनिवेशवाद के दौर में जो आर्थिक नासमझी और कुनीति फैली उसी के असर में मेहनत के मूल्य तय करने के सिद्धांत और तौर-तरीके बने। यह औपनिवेशिक संदर्भ में ही तय किया गया कि किसी के मेहनत का मूल्य मेहनत में छुपी कुशलता के हिसाब से तय होगा। यहां 'कुशलता' किसे कहा जाए? उपनिवेशवाद ने अपने चरित्र के अनुसार 'कुशलता' को परिभाषित किया। राज के नियंत्रण और निर्देशन वाली स्कूली शिक्षा में पले-बढे़ वफादार वर्ग को 'कुशल' और समाज की सतरंगी और स्वायत्त शिक्षा से सीखने वाले किसान, कामगार और शिल्पकार वर्ग को 'अकुशल' माना गया। इस धतकर्म में उपनिवेशवाद के स्वार्थ और भारतीय परंपरा की एक खास धारा के बीच एक ऐतिहासिक समझौता और साझेदारी कायम हुई। यह संयोग इतना महत्वपूर्ण और टिकाऊ साबित हुआ कि इसे '१९४७ में नियति से हुई मुलाकात' भी बदल नहीं सकी।

आजादी के बाद से आज तक यह औपनिवेशिक-कुनीति चली आ रही है। इसमें हर किसान-कामगार को अकुशल और हर कागजी काम करने वाले को कुशल या अति-कुशल माना जाता है। आधुनिक शिक्षा इसी समझ का विस्तारित और संस्थागत रूप है। यह अनायास नहीं है कि समूची शिक्षा संरचना को हद दर्जे की किताबी और कागजी बनाया गया। आर्थिक अन्याय से भी गहरी मार करने का काम इस शिक्षा ने किसान और शिल्पी वर्ग के आत्म-विश्वास और मनोबल को तोड़ने का किया। स्वयं किसान भी यह मानने-कहने लगे कि 'हम तो बैल के संग बैल हैं'- 'हम तो पढे-लिखे नहीं'। 'पढोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब' जैसी कहावतों को इसी शिक्षा ने खाद-पानी दिया है। अनेक लघु समाजों की अनुपम उत्पादन संस्कृति और सृजन परम्परा को अकुशल और अमान्य कह कर पूरी सभ्यता की आत्म-छवि और कर्मशीलता को समस्याग्रस्त कर दिया गया।

आज तक हर किसान-कामगार-शिल्पी के भाग्य को इसी सोच के साथ तय किया जाता रहा है। सवाल पूछा जा सकता है कि आजादी के बाद इस सोच में परिवर्तन क्यों नहीं आया। इसका जवाब यही हो सकता है कि जिस तरह उपनिवेशवाद में एक समाज को लूट कर दूसरे समाज को बनाने की कोशिश की जाती है, उसी तरह की सोच और कोशिश आधुनिक औद्योगिक भारत को बनाने में काम में लायी गई। गांव-किसान के मेहनत के मोल को दबा कर ही उस पूंजी का निर्माण किया गया जिससे शहरी और औद्योगिक विकास हुआ है। किसान के शोषण को समझने के लिए एक और तथ्य गौर-तलब है। सरकारी-संगठित वर्ग का वेतन इस हिसाब से तय किया जाता है कि उससे पूरा परिवार पले। खेती-किसानी और बाकी असंगठित वर्गों की हकदारी तय करते यह सिद्धांत बदल जाता है। वहां मेहनत-मजदूरी इस हिसाब से तय होती है कि हर आदमी कमाए तब खाए। सोचने की बात है कि ऐसा क्यों होता है। इस सैद्धांतिक भेदभाव के फलितार्थ बहुत दूर तक जाते हैं।

औद्योगिक पूंजीवाद के साथ शुरू हुई कृषिकर्म और हस्तशिल्प की अवमानना और अवमूल्यन को उपनिवेशवाद ने ज्ञानमींमासा के स्तर पर पहुंचाया। इसी ज्ञानशास्त्र की बुनियाद पर आधुनिक लोकतंत्र और सभ्य समाज ने अपना आचार-विचार रचा है। क्या स्वयं और समूची पृथ्वी को रोगी बनाने वाली जीवन-शैली और उसकी ज्ञानशास्त्रीय बुनियाद को नए सिरे से देखने-गढ़ने का समय आ गया है?

(
जनसत्ता में 12 दिसंबर, 2009 को प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

  1. भारत में उपनिवेशवाद के दौर में जो आर्थिक नासमझी और कुनीति फैली उसी के असर में मेहनत के मूल्य तय करने के सिद्धांत और तौर-तरीके बने। यह औपनिवेशिक संदर्भ में ही तय किया गया कि किसी के मेहनत का मूल्य मेहनत में छुपी कुशलता के हिसाब से तय होगा। यहां 'कुशलता' किसे कहा जाए? उपनिवेशवाद ने अपने चरित्र के अनुसार 'कुशलता' को परिभाषित किया। राज के नियंत्रण और निर्देशन वाली स्कूली शिक्षा में पले-बढे़ वफादार वर्ग को 'कुशल' और समाज की सतरंगी और स्वायत्त शिक्षा से सीखने वाले किसान, कामगार और शिल्पकार वर्ग को 'अकुशल' माना गया। इस धतकर्म में उपनिवेशवाद के स्वार्थ और भारतीय परंपरा की एक खास धारा के बीच एक ऐतिहासिक समझौता और साझेदारी कायम हुई। यह संयोग इतना महत्वपूर्ण और टिकाऊ साबित हुआ कि इसे '१९४७ में .....nice

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