सोमवार, 14 दिसंबर 2009

समाज विज्ञान की शिक्षा और स्थानीय संदर्भ

जब किसी शिक्षा व्यवस्था में पाठ्‌यचर्या, पाठ्‌यक्रम, पाठ्‌य-पुस्तकें और परीक्षा सभी कुछ 'ऊपर से तय' होता हो तो शिक्षाशास्त्रीय सरोकारों का निर्वाह लगभग नामुमकिन हो जाता है। ऐसे में छात्रों की ग्राह्यता, स्थानीय संदर्भ से संगति जैसे बुनियादी सवाल पीछे छूट जाते हैं। प्रदेशों में शिक्षा की स्थितियां इतनी रूढ़िबद्ध हैं कि कोई भी नवाचार और नवचिंतन बहुत मुश्किल से ही संभव हो पाता है। इन मुश्किलों के बीच अधिकतर शिक्षक धीरे-धीरे यथास्थितिवाद के आगे घुटने टेक देते हैं। हाँ, प्रयोगधर्मिता पूरी तरह से असंभव कभी नहीं होती। जहां चाह वहां राह निकल ही आती है। आइए, उत्तराखंड के एक ग्राम्य क्षेत्र जैंती में पढ ने-पढाने के एक अनुभव को देखते हैं। यह अनुभव शिक्षा में प्रयोगधर्मिता की एक झलक दिखाने के अलावा बहस के लिए कुछ सवाल भी सुझा सकता है।

संदर्भ कुमाऊँ का है, लेकिन यह तथ्य लगभग हर ग्रामीण सिखाडु के बारे में सच है कि वह सीखने की प्रक्रिया में एकाधिक भाषाओं से जूझता है। अक्सर अपनी भाषा से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई मेहमान भाषा हो जाया करती है। मामला केवल भाषा तक ही सीमित नहीं रहता। ज्ञान का समूचा संसार उसके अपने अनुभव संसार से दूर खडा, उसे अज्ञानी बताता रहता है। अंग्रेजी हो या हिन्दी, जब भी कोई भाषा किसी अन्य अंचल में छल-बल के साथ आ बसती है तो परिणाम दुखदायी रहते हैं। जब यही भाषाएं स्थानीयता से सीखती और संवाद करती हैं तो स्थितियाँ बदलने लगती हैं।
आज शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में नित-नयी नीतियों का फैलाव हो रहा है। अखिल भारतीयता और ग्लोबल गाँव के महा-आखयान नए सिरे से रचे जा रहे हैं। ऐसे में पहाड़ी भाषा में जीने और हिन्दी-अंग्रेजी से जूझने वाले एक क्षेत्र की अन्तर्कथा को सुनना कारगर रहेगा। मुमकिन है इससे महा-आख्यानों के अतिवाद से बचने में मदद मिले।

सीमांत के किसी अंचल के गाँव में औपचारिक शिक्षा का खडा होना ही बडी चुनौती होती है। इस शिक्षा का स्थानीय संदर्भ से जुडा होना तो अभी दूर का स्वप्न ही है। किसी समाज में शिक्षा की बुनियाद ही कमजोर रखी जा रही हो तो उच्च शिक्षा, पुस्तक संस्कृति या साहित्य संसार की बातें बेहद मुश्किल हो जाती हैं। जैंती की ऐसी ही स्थितियों के बीच एक प्रयोग हुआ, शिक्षा को आंचलिक परिवेश से जोड ने की एक कोशिश। असल में एक अधूरी और असफल कोशिश। इस कोशिश पर एक नजर डालते हैं।

पुस्तकों से दूर रहे इस समाज में एक पहल हुई - किताबों से दोस्ती की। भारत ज्ञान विज्ञान समिति की जनवाचन श्रृंखला से सीधी और सादी शुरुआत हुई। इसी क्रम में उत्तराखंड आंदोलन के सहमना प्रकाशन 'पहाड ', नैनीताल समाचार और महिला पत्रिका 'उत्तरा' में छात्रों को ज्ञान का समाज-संगत रूप देखने को मिला। शेखर पाठक द्वारा संपादित उत्तराखंड के दृश्य इतिहास 'सरफरोशी की तमन्ना' और सिद्ध द्वारा प्रकाशित राधा भट्‌ट के उपन्यास 'हिमालय की बेटी-माना' ने छात्रों को किताबों की दुनिया का मुरीद बना दिया। किताब की ताकत का अहसास हुआ। संभावनाओं का 'सारा आकाश' सामने था।
राज्यों और साम्राज्यों को इतिहास का रंगमंच मानने वाली नजर यह नहीं देख पाती कि हर गांव, हर जंगल का एक इतिहास होता है। यह इतिहास जिल्दों में नहीं स्मृतियों में दर्ज रहता है। इन स्मृतियों और उनके स्थानीय संदर्भ से जुड़े रहे हैं गुमानी, शिवदत्त सती, गौर्दा, चंद्रकुंवर बर्त्यवाल और गिरीश तिवारी 'गिरदा' जैसे उत्तराखंडी लोककवि। शैक्षिक ज्ञान की औपचारिक दुनिया और अनुभव की अनौपचारिक दुनिया के मेलजोल से स्थानीय समाज का मनोबल बदलने लगा। पहाडी भाषा-संस्कृति-सामर्थ्य के बारे में आत्मविश्वास और सौन्दर्य-बोध जगा। अपने भाषा-संदर्भ से चुनी गई सामग्री ने व्यापक शब्द संसार के प्रति एक विश्वास का रिश्ता पैदा किया। अलगाव और अजनबीपन दूर हुआ।

इस प्रक्रिया को एक उदाहरण की मदद से देखते हैं। एक कहानीकार हैं, शैलेश मटियानी। अनुभव समृद्धता का दायरा कुलीगिरी और कसाईगिरी से लेकर कलमकारी तक। शैलेश जी की एक कहानी 'काला कौवा' शंभू पांडे की पत्रिका 'इन दिनों' में छपी। कहानी में छुपी शिक्षाशास्त्रीय संभावनाओं ने मानस को मथ दिया। इस कहानी को राजनीतिशास्त्र की स्नातक-कक्षा में आजमाने की जुगत सोची गयी।

कहानी का थोडी नाटकीयता के साथ वाचन करने का निर्णय हुआ। इस छोटे से प्रयोग में भी खतरे छुपे थे। पहली नजर में यह एक अध्यापक की 'कोर्स पूरा करवाने' की जिम्मेदारी से हटने का मामला था। अस्सी पफीसदी छात्राओं की कक्षा में एक संवेदनशील कहानी अप्रत्याशित प्रतिक्रिया या आरोपों को न्यौता दे सकती थी। जहां एक बडे हाल में पूरा डिग्री कॉलेज चलता हो वहां इस प्रयोग की मुश्किलों का अनुमान लगाया जा सकता है। प्राचार्य, अभिभावक या कोई भी 'स्वयंभू' संस्कृति रक्षक 'कारण बताओ नोटिस' दे सकता था। लेकिन संभावनाओं ने आशंकाओं को पीछे छोड दिया।
बिना लंबी भूमिका के कहानी-पाठ शुरू हुआ। यह एक छोरमूल्या (अनाथ लड़का) और उसकी बहन की जीवन स्थितियों से जूझने की एक सशक्त कहानी है। कहानी ने पहाड ी ग्रामीण परिवेश में व्याप्त पीडा की अंर्तधारा को पकड लिया। कहानी पहाड जैसे जीवन में अथक जिजिविषा का चलचित्र प्रस्तुत करती है। पर्वतीय जीवन से जुडी कठिन सामाजिक आर्थिक स्थितियों को कहानी ने किसी शोध लेख से कहीं ज्यादा प्रमाणिक तरीके से समझा दिया। कहानी ने छात्रों में राजनीतिक चेतना और साहित्यिक समझ को उकसा दिया।

राजधानियों से दूर चले जाए तो प्रचलित शैक्षिक परिवेश कक्षा को रंगमंच बनाने जैसे प्रयोगों की अनुमति नहीं देता। कुछ हजार शब्द पाठक पर क्या असर पैदा कर सकते हैं? शैलेश मटियानी की इस कहानी का वाचन इस कल्पना को नया विस्तार देता है।

कहानी जीवन से बडी होती समस्याओं का कोई तुरंत समाधान नहीं देती। आदमी के जीवट पर लौट-लौटकर टिकती उम्मीदों के सिवा कहानी दे भी क्या सकती है। लेकिन इस उम्मीद और विश्वास से बडा आखिर होता भी क्या है। इसी तरह का एक अनुभव लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही' की एक छोटी सी कहानी 'एक ही धारा' के वाचन का हुआ। इस कहानी से छात्रों के बीच दलित प्रश्न और जाति की संरचना पर चिंतन-मंथन शुरू हो गया। हम जानते हैं कि पानी का सवाल पर्यावरण से लेकर समाजशास्त्र तक का सवाल है। पानी के नौले-धारे जातियों के हिसाब से अलग रहे हैं। इस विभाजित समाज का संस्कार हमारी राजनीति में किन रूपों में मौजूद है? स्वयं अपने मन में पडे विभेद के बीजों को पहचानना 'मुक्ति के शिक्षाशास्त्र' का पहला सबक होता है। बटरोही की छोटी सी कहानी मुक्ति के विमर्श का प्रस्ताव बन गई।
स्थानीय संदर्भ और साहित्य से जुड़े तो शिक्षा विचार और व्यवहार में नएपन की अनेक खिडकियाँ खोलती है। अनुभव के ये झोंके मौसम के बदलने की खबर लाएं हैं क्या?

(सम्पादित अंश दैनिक भास्कर, 1 नवम्बर, 2009 को प्रकाशित)

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