शनिवार, 12 सितंबर 2009

समाज के सीमान्त में समाज विज्ञान Social Sciences in Margins

पंकज पुष्कर
उच्च शिक्षा का भाषायी-लोक : अवलोकन और अनुभव


ये अनुभव खास तौर से उत्तराखंड के एक महाविद्यालय जैंती में राजनीति शास्त्र के अध्यापक के रूप में काम करने के दौरान उपजे हैं। इसके अलावा झारखंड-छत्तीसगढ़ और फिर बिहार-उत्तर प्रदेश में इन अनुभवों को जांचा-परखा गया। दिल्ली में प्रवास के दौरान इन अनुभवों को व्यापक शैक्षिक विमर्श के बीच रख कर देखने की शुरुआत हुई। जैंती महाविद्यालय में बीते शुरुआती अनुभव और हिन्दी प्रदेश की यात्राओं ने सोचने-समझने और सुलझाने के लिए कई चुनौतीपूर्ण सवाल दिए। यह कहना जरूरी है कि ये सवाल और उनसे जुडे तजुर्बे ना तो अतिंम हैं और न ही समग्र। भारत के शैक्षिक यथार्थ, बल्कि कहें कि इसके हर भाषायी अंचल के शैक्षिक यथार्थ की बारीक बुनावट बहुत ही धैर्यपूर्ण अनुसंधान की मांग करती है। इन सवालों और उनसे जुडे तजुर्बे को इस अनुसंधान और एक गंभीर पहल के प्रस्ताव के रूप में रख देना ठीक होगा।

) सबसे मानीखेज और बुनियादी महत्व के अनुभवों से यह सामने आया कि किसी छात्र का संज्ञानात्मक विकास उसके परिवेश के भाषायी यथार्थ से गहरे तौर पर निर्धारित होता है। हर छात्र को अपने अनौपचारिक शिक्षण (घर-परिवार और सांस्कृतिक परिवेश में) और अपने औपचारिक शिक्षण (स्कूल-कालेज और शासकीय परिवेश में) के दौरान किन्ही भाषाओं को बरतने और सीखने का अवसर मिलता है। इस प्रक्रिया में कुछ पहलु बहुत महत्वपूर्ण हैं। किसी बालक को इन भाषाओं को कितने रूपों में और कितनी गहराई से सीखने का अवसर मिला है? इन भाषाओं में कितनी विविधता रही है? इस विविधता में कितना अंश औपचारिक रूप से 'पढाने और सिखाने' से आया है और कितना अनौपचारिक रूप से भाषाओं को 'बरतने और सीखने' से? इन 'स्वयं सीखी हुई' और 'सिखाई हुई' भाषायों के बीच सत्ता-संबंध कैसे हैं? क्या ज्ञान-मीमांसा के लिहाज से इन भाषायों में कोई श्रेणीक्रम या स्तरीकरण है? क्या इस छात्र के लिए मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा, शिक्षण की भाषा और राज-काज की भाषा में कोई अन्तर है? अगर हाँ, तो कितना, कैसा? यह अन्तर क्या-क्या प्रभाव पैदा करता है? खास तौर से छात्र की मनो-सामाजिक आत्म छवि, संज्ञानात्मक विकास और आर्थिक-सामाजिक अवसरों की उपलब्धता पर इसके किस तरह के असर पड़ते हैं?

) उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र के इन छात्रों के जीवन में कुमांऊनी, हिंदी और अंग्रेजी भाषा की उपस्थिति थी। घर में कुमांऊनी बोलने वाले इन युवाओं के लिए शिक्षा का माध्यम हिंदी और शहरी नौकरियों में प्रवेश की भाषा अंग्रेजी थी। इन कुमांऊनीभाषी छात्रों की हिन्दी में गति आश्चर्यजनक रूप से कमजोर थी। इतनी कमजोर कि राजनीति शास्त्र में कुछ कदम बढाने की कोशिश में ही सामने एक दीवार खडी दिखाई देती थी। अंग्रेजी इन छात्रों के लिए मृगतृष्णा ही थी। बच्चों का भाषायी ज्ञान गहरी खीज और चिंता पैदा करने वाला था। हाँलाकि यह साफ था कि छात्रों की भाषायी दक्षता उनकी क्षमता पर नहीं वरन हमारी शिक्षा व्यवस्था और शैक्षिक प्रक्रियाओं पर टिप्पणी थी। इस स्थिति में जरूरत छात्रों के प्रति गहरी तदानुभूति तथा शिक्षाशास्त्रीय पर सूझबूझ भरे रचनात्मक सहयोग की थी। यह समझने की जरूरत थी कि आखिर सामाजिक-आर्थिक स्थितियां किस तरह शैक्षिक प्रक्रियाओं, उपलब्धियों और खासकर सीखने के मनोविज्ञान को प्रभावित करती हैं।

) राजनीति शास्त्र स्थगित हो गया। राजनीति शास्त्र की पढाई शुरू होने से पहले शिक्षाशास्त्र की शोधशाला और भाषा सीखने-सिखाने की एक पाठशाला बनाने की जरूरत महसूस की गयी। राजनीति का शास्त्र और अध्यापक भी उस समाज के लिए ग्राहय और स्वीकार्य तब बना जब वह कुमांऊनी भाषा-साहित्य और समाज-संस्कृति के प्रति ग्राही बना। जब राजनीति की पढ ाई को स्थानीय भाषाओं का बरताव और स्थानीय समाज का संदर्भ मिला तो धीरे-धीरे छात्रों को राजनीति शास्त्र से अपनापा महसूस होने लगा। भाषा के मामले में यह विश्वास प्रयोगों में सिद्ध हुआ कि पहली भाषा में प्रवीण होना दूसरी भाषा सीखने में और तीसरी भाषा सीखने की संभावना पैदा करने में निर्णायक रूप से मददगार होता है। किसी भी समाज विज्ञान से छात्रों का जुडाव इस बात से तय होता है कि वह समाज विज्ञान उनकी भाषा, जीवन और परिवेश से कितना जुडा है।

) एक-दो अपवादों को छोड कर विद्यालय के सभी छात्र पहली पीढी के स्नातक होने जा रहे थे। एक तथ्य यह सामने आया कि चुनौतीपूर्ण सामाजिक आर्थिक स्थितियों के बीच भी इन छात्रों में पढ़ने-सीखने के प्रति लगाव तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा था। बहुत संभव है कि कठिन सामाजिक आर्थिक स्थितियों के कारण ही इन छात्रों में पढने-सीखने के प्रति लगाव ज्यादा था। इन छात्रों की आँखों में वंचना और अवसरहीनता से मुक्ति के सपने थे। सवाल था कि क्या प्रचलित उच्च शिक्षा इन छात्रों की मुक्ति कामना को पूरा करने में सक्षम थी।

) छात्रों की भाषायी क्षमताएं तो कमजोर थी ही, गणित और विज्ञान में बुनियादी रुचि तथा विश्लेषण की क्षमताएं भी बुरी तरह अविकसित और कुंद अवस्था में थी। इस स्थिति को प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा के संचयी प्रभाव के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। स्कूली अनुशासन से मुक्त रहे किशोर में कुछ नैसर्गिक क्षमताएं होती हैं। लगता था कि स्नातक-पूर्व की शिक्षा ने बहुत कुछ देने की जगह इन छात्रों से वे नैसर्गिक क्षमताएं भी छीन ली थीं। अपने प्राकृतिक-सामाजिक परिवेश के प्रति जिज्ञासा, सहज सवाल पूछने की प्रवृत्ति इन बच्चों में दब चुकी थी।

) अनुभव के साथ-साथ शैक्षिक सच्चाई की अन्दरूनी परतें खुलनी शुरू हुईं। इन शांत और अवाक्‌ दिखने वाले युवाओं के अंदर एक अपनी तरह की सूझ-बूझ, उम्मीद और उमंग छुपी हुई थी। चौंकाने वाला तथ्य यह था कि यह चुप्पी और निष्क्रियता अक्सर एक जटिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की अभिव्यक्ति होती थी। कई मौकों पर जाहिर हुआ कि कक्षा का सबसे शांत, दूर कोने में रहने वाली छात्रा असल में अपने मन में अनेक सवालों और इच्छाओं को लिए हुए अनुकूल स्थिति की प्रतीक्षा कर रही थी। यह ज्ञान की औपचारिक व्यवस्था पर गहरे अविश्वास और संबंधहीनता का नमूना था। अक्सर पाया गया कि जो युवा राजनीतिशास्त्र की कक्षा में बिल्कुल शांत और अलग-थलग रहा करता था, वही अपने गांव के किसी सामाजिक आयोजन में या राजनीति में बहुत ही उत्साह के साथ सक्रिय हो जाता था।

) इस संदर्भ में निर्देशित पाठ्‌यक्रम, उपलब्ध पाठ्‌यपुस्तकों और प्रचलित समाजविज्ञान की ज्ञान मींमासा पर विचार-मंथन शुरू हुआ। इस प्रश्न को राजनीतिक सिद्धांत के स्तर पर उठाया गया कि प्राकृतिक संसाधनों को सहेजते हुए जीवन जीना पिछडापन है या सभ्यता का एक सोपान। खेती-किसानी, से जुडा ज्ञान 'ज्ञान' है या नहीं? हाथ के काम, मशीनी काम और दिमागी काम में किसी को ऊंचा और किसी को नीचा मानना किस तरह न्याय-संगत है। नीले और सफेद कालर वाले कामों का बिम्ब-विधान रचने वालों की कल्पना में आधी धोती में लिपटी दलित महिला या एक अंगोछे में ढके आदिवासी पुरुष की छवि क्यों नहीं आयी। यह मुहावरा गड़ने वालों का अनुभव संसार संकुचित था या न्याय-बोध। ऐसे प्रश्नों के स्थानीय संदर्भ में उठते ही छात्रों के अंदर दबे अनुभवों और उनमें छुपा ज्ञान बाहर आने लगता है।

) जब राजनीति शास्त्र अपनी जीवन स्थितियों को समझने और बदलने के ज्ञान के रूप में दिखाई देना शुरू हुआ तो शास्त्र से एक नया संबंध बना। हालांकि यह संबंध बहुत पक्का, गहरा और टिकाऊ नहीं बन सकता था। राजनीति शास्त्र क्या है, उसे कैसे सीखा जाए और सीखे हुए को कैसे मापा जाए, यह सब कुछ बाहर से तय होने वाली प्रक्रियाएं थीं। विद्यालय के छात्र और शिक्षक मिलकर कुछ सहमति-असहमति तो दर्ज कर सकते थे, बुनियादी बदलाव नहीं। इस पूरी प्रक्रिया ने समाजविज्ञानों की पाठ्‌यचर्चा के बारे में नए सिरे से सोचने के लिए जरूर उकसाया। ऐसी प्रक्रियाओं की खोज शुरू हुई जिनमें पाठ्‌यचर्या और ज्ञान मीमांसा से जुडे सवालों को स्थानीय देश-काल-परिस्थितियों के आईने में रखकर देखा गया हो।

) राजनीति शास्त्र की पढाई के लिए सही पाठ्‌यपुस्तक या इतर सामग्री चुनने की कोशिश में भी महत्वपूर्ण अनुभव हुए। यह सच्चाई सामने आयी कि आजाद हिंदुस्तान में खास तौर पर भारतीय भाषाओं में पाठ्‌यपुस्तक बनाने का काम कभी भी सिलसिलेवार ढंग से नहीं हुआ। यह हाल उस हिंदी भाषा में भी पाया गया जिसे बोलने-बरतने वालों की संखया ५० करोड से अधिक है। जो किताबें विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में पायी गईं उनमें से अधिसंखय आगरा-मेरठ-पटना-जयपुर के उन व्यवसायिक प्रकाशकों और लेखकों की थी जिनकी निगाह केवल मुनाफे पर रही है। जैंती के अनुभव ने इस जरूरत को रेखांकित किया कि देशकाल के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए पाठ्‌यक्रम और छात्र की ग्राहयता के अनुसार पाठ्‌यसामग्री का निर्धारण होना जरूरी है। अनुभव से यह जरूरत भी सामने आयी कि किसी पाठ्‌यपुस्तक को सुविधा के लिए एक जगह जुटाई गई-सुझाई गई सामग्री की तरह लिया जाना चाहिएं न की एक पावन और आधिकारिक ज्ञान-स्रोत की जगह। छात्र की स्थिति को जानने वाले शिक्षक की सामग्री चुनने की प्रक्रिया में स्वायत्तता और गतिशीलता का समावेश हो, यह जरूरी है।

१०) लेकिन व्यवहार में पाठ्‌यसामग्री में विविधता का मामला उस पाठयक्रम और परीक्षा प्रणाली के खिलाफ जाता है जिसमें समझने की जगह प्रदत्त ज्ञान को रट कर उगल देने पर जोर है। प्रचलित परीक्षा प्रणाली और कल्पनाहीन-गतिहीन पाठ्‌यक्रम के कारण पाठ्‌यपुस्तक को कुंजियों ने और कुंजियों को गैस पेपर्स (जिसमें परीक्षा में संभावित बीस प्रश्न और उनके उत्तर होते हैं) ने विस्थापित कर दिया है। यह आश्चर्यजनक रूप से दुखद है कि लगातार रूढ़ होती इस 'कुंजी-कल्चर' के प्रति पूरा शिक्षा प्रतिष्ठान अद्‌भुत रूप से सहनशील और उदार है।

११) शिक्षा में बेहतर प्रबंध और अधिक निवेश करने की जगह सरकारों ने एक अध्यापक वाले महाविद्यालय खोलना, ठेके पर अध्यापक रखना, दूरस्थ शिक्षा और ई-लर्निंग जैसे शिगूफे छोडे हैं। उत्तराखंड का उदाहरण सामने है जहां बीस से ज्यादा ऐसे महाविद्यालय खोले गए हैं, जहां प्रशासनिक कामों के लिए एक-एक प्राचार्य, लिपिक और सहायक है और शैक्षिक कार्यों के लिए मात्र एक अध्यापक। इसी क्रम में साल में नौ महीने का मानदेय पाने वाले ठेके पर रखे गए वे शिक्षक हैं जिन्हें गुरुजी, शिक्षामित्र, विजिटिंग लेक्चरर जैसे नाम दिए गए हैं। यह एक और शिक्षा में समता के मूल्य को पीछे छोड देने का मामला है और दूसरी ओर जीविका के रूप में शिक्षण के साथ जुड प्रतिष्ठा और आत्म-तोष को खत्म कर देने का। पर्याप्त शैक्षिक योग्यता और प्रेरणा के बिना तथा सतत आर्थिक असुरक्षा में रहने वाले ठेके के शिक्षक की नीति के शिक्षाशास्त्रीय निहितार्थों के बारे में गंभीरता से सोचा गया हो, ऐसा नहीं लगता.

१२) सीमांत के समाजों के अनुभव ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि शिक्षक-विरल होती शिक्षा व्यवस्था में पाठ्‌यसामग्री का मामला और भी ज्यादा संवेदनशील हो जाता है। कोई बुरी किताब बहुत बुरी और अच्छी किताब बहुत अच्छी भूमिका ग्रहण कर लेती है। उस विद्यालय में जहां शिक्षक न हो और उस परिवेश में जहां कोई अन्य सहायक सामग्री न हो पाठ्‌य पुस्तक डूबते के लिए तिनके का सहारा होती है। शिक्षा से वंचित रहे समाज में मुद्रित शब्द वैसे भी असामान्य रूप से विश्वास और श्रद्धा के पात्र बन जाते हैं। इसी के साथ एक सच्चाई यह है कि समाज में व्यापक और विविध रूप में किताबों को पढ़ने-पढाने की न तो आर्थिक स्थिति है और न ही राजनीतिक संस्कृति। यह विद्रूप लेकिन अनुभव-जात सत्य है कि अधिकतर बच्चों को युवा होने तक की जीवन यात्रा में पाठ्‌य-पुस्तकों के अलावा किसी किताब के दर्शन नहीं होते। ऐसे में अरुचिकर किताबें ज्ञान के प्रति अरुचि पैदा कर देती हैं। समाज से असंगत और संदर्भहीन पुस्तकें ऐसा आभास पैदा कर देती हैं कि शब्द संसार अनिवार्य रूप से वास्तविक संसार से कटा हुआ होता है। ऐसे में युवा या तो शब्दों की दुनिया से पराया हो जाता है या वास्तविक दुनिया से।

१३) कुछ महानगरीय संस्थान अपवाद हैं जो अपनी संसाधन-सघनता के कारण पहले से ही बेहतर सुविधाओं में विकसित हुई 'प्रतिभाओं' को आकर्षित करते हैं और उन पर 'प्रतिभा' की एक और परत चढा देते हैं। इसके अलावा बाकी जगह छात्रों के साथ काम करने की शुरुआती स्थिति बहुत चुनौतीपूर्ण है। भाषायी दक्षताओं का अल्पविकास, प्रचलित पुस्तकों से अरुचि, संवाद और प्रश्नातुरता की प्रवृत्तियों का बुरी तरह चोटिल हो जाना जैसी स्थितियां रूढ हो चुकी हैं। यहां से पढने-लिखने, चिंतन और विश्लेषण की दमित संभावनाओं को पिफर से जीवित करना और धीरे-धीरे क्षमताओं के विकास में मददगार बनना महत्वाकांक्षी योजना है। इस स्थिति में उपयुक्त पाठ्‌यसामग्री का चयन, निर्माण और सही तरीके से उपयोग बेहद महत्वपूर्ण है।

१४) सवाल यह है कि किसी समाज में किसी भी शास्त्र के अर्थवान होने की कसौटी क्या है? युवा किसी शास्त्र से जुडे इसकी पूर्व शर्त होती है कि वह शास्त्र उनकी जिंदगियों से जुडाव पैदा करे। छात्र राजनीतिशास्त्र की दुनिया से जुडे इसके लिए शास्त्र का ऐसा रूपांतरण होना जरूरी है जो उनकी जीवन स्थितियों का अपना केंद्रीय सरोकार बनाएं। जरूरी है कि ऐसा शास्त्र समावेशी और मुक्तिदायी हो। महाविद्यालय के स्तर पर ऐसा होना असंभव था। लेकिन छात्रों ने एक ऐसी सहभागी प्रक्रिया को जन्म दिया जिसमें वे दिए गए राजनीति शास्त्र को अपने भोगे हुए यथार्थ की कसौटी पर कसते हुए आगे बढ़े। १५) स्थानीय स्तर पर एक छोटा सा पुस्तकालय खोला गया। इस किताबघर में साथ बैठ कर पढ ने-सुनने, चर्चा करने के अवसर बने और सहवाचन की एक रिवायत शुरू हुई। इससे उन छात्रों को बडी मदद मिली जो किन्हीं कारणों से पढ ने की आदत पैदा नहीं कर सके थे। विविध तरह की किताबों और उनके साथ नित-नूतन गतिविधियों ने छात्रों में सक्रियता और सहभागिता का तेवर पैदा कर दिया। इस प्रक्रिया में लिखने-पढ ने की प्रति एक आलोचनात्मक और रसास्वादन का रिश्ता बना। इस रिश्ते ने राजनीति शास्त्र की गंभीर सामग्री से जुड जाना मुमकिन बनाया। छात्र अंबेडकर, लोहिया, गांधी की मूल रचनाओं का पाठ करने लगे। दुष्कर अनुवाद की अडचनों के बाद भी रजनी कोठारी की 'भारत में राजनीति' छात्रों के लिए पाठ्‌य बनी। विपिन चंद्र, आदित्य और मृदुला मुखर्जी की पुस्तक 'भारत की स्वतंत्रता संघर्ष' को छात्रों ने अलग-अलग कोण से पढा।

१६) जैसा कि बाद की अनेक प्रक्रियाओं से जाहिर हुआ राजनीति शास्त्र में अरुचि रखने वाला यह छात्र राजनीति और समुदाय के मामले में अरुचि नहीं रखता था। इस गुत्थी के सुलझने के आसार बने कि भला स्थानीय राजनीति की प्रक्रियाओं को बखूबी समझने और उसमें भाग लेने वाला एक औसत छात्र स्वयं को राजनीति शास्त्र की कक्षा में अलग-थलग क्यों महसूस करता है। जाहिर हुआ कि इस छात्र का राजनीति शास्त्र से अलगाव विषय की बनावट और पाठ्‌यसामग्री तथा पढ ने-पढाने तरीकों के अनुपयुक्त होने के कारण था। जैसे ही राजनीति शास्त्र के पाठ्‌यक्रम को स्थानीय संदर्भ और जीवन अनुभवों के आलोक में देखने की छूट मिली अभी तक हाशिए पर रही छात्रा भी एक संभावनाशील और बौद्धिक सामाजिक की तरह व्यवहार करने लगी। एक समय राजनीति शास्त्र में दूर खडा युवा न केवल राजनीति शास्त्र से जुडाव बनाने में कामयाब रहा वरन उसे अपने सामाजिक जीवन में इस्तेमाल भी करने लगा। लेकिन यह केवल सघन सक्रियता से उपजा हुआ तात्कालिक उत्साह साबित हुआ, कोई टिकाऊ समाधान नहीं। जिन सवालों के साथ यह अनुभव यात्रा शुरू हुई थी, उनकी संखयाओं में भी बढोतरी हुई और जटिलता में भी।

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