शनिवार, 12 सितंबर 2009

For those who are afraid of Hindi

हरेक बात पे कहते हो कि तू क्या है ?

चंदन श्रीवास्तव

हिन्दी पखवाड़े के नाम से इस साल भी रस्म अदायगी हो रही है। यह "आह हिन्दी" से लेकर "वाह हिन्दी" तक के भाव से लबरेज लेखों के छपने और भाषणों के उछलने का वक्त है। आह और वाह के भाव से इतर इक्कसवीं सदी के पहले दशक के इन आखिरी सालों में जब हिन्दी पट्टी के मध्यवर्ग का चेहरा एकदम से बदल गया है, क्या अंग्रेजी-हिन्दी के द्वैत पुराने चौखटे से हिन्दी के हाल-चाल पर सोचना ठीक रहेगा ? कुछ कहेंगे कि सन् साठ के दशक की बातों का इस इक्कीसवीं सदी की उच्छल और कलकल निनादित हिन्दी की गलियों में क्या गुजर ? आचार्यों के खूंटे से बंधी हुई हिन्दी पगहा तुड़ाकर अब मीडिया के मनोरंजनी चारागाह में भर कौर खा रही है और हिन्दी के सामने सवाल कोई एक ठौर पाने का नहीं बल्कि भूमंडलीकरण के बेहद्दी मैदान में बूते भर घुमक्कड़ी करने का है। इस तर्क की तान इस बात पर टूटती है नये दौर में नया पुरानी चिन्ताएं जायज हैं और ना ही सोचने के पुराने चौखटे।

इक्कीसवीं सदी, हिन्दी पट्टी का बदलता मध्यवर्ग और इस मध्यवर्ग के बीच समाचार से लेकर विचार और मनोरंजन तक अपने को गढती-संवारती हिन्दी। यह तर्क जितना पुष्ट दिखता है उतना ही आत्मालोचन से परे भी। पहले हिन्दी के पास एक नैतिक बल हुआ करता था यह कहने का कि हिन्दी अपने भाव और विचार संसार में वंचितों की नुमांइदगी करती है। हिन्दी की रोजाना की बोलचाल हिन्दीपट्टी के वंचितों से है। अपने इस नैतिक बल से वह अंग्रेजी बरतने वाले अभिजन के बीच खड़े होने की दावेदारी करती थी। अंग्रेजी अभिजन हिन्दी के इस नैतिक आग्रह के सामने छोड़ा संकोच में पड़ जाता था। कहीं गहरे अवचेतन में एक दोष-भावना उसे घेर लेती थी कि शायद हिन्दी वाले ठीक कह रहे हैं। उन्हें लगता था कि आखिर लोकतंत्र में गुफ्तगू का मतलब अवाम से है तो यह दावेदारी हिन्दी सहित तमाम देशी भाषाएं तो कर सकती हैं लेकिन उपनिवेश बनाने वाली भाषा होने का लांछन ढ़ोने के कारण अंग्रेजी नहीं। अंग्रेजी अभिजन के चित्त की इस शंकाकुल मनोदशा से हिन्दी की राजनीति करने वालों के लिए एक जमीन पैदा होती थी।

बहरहाल, उस दौर में अंग्रेजी के पास अपने होने की वैधता को सिद्ध करने के अनेक तर्कों के बीच एक जबर्दस्त सांस्कृतिक तर्क यह था कि हिन्दी साहित्य से अलग ज्ञान-विज्ञान-वाणिज्य-कानून की भाषा नहीं बन पायी है और यह थाती तो अंग्रेजी के ही पास है। इस तर्क का एक अर्थ-प्रसंग यह था कि हिन्दीपट्टी अभी वैज्ञानिक चेतना से दूर है और जबतक ऐसा नहीं होता सेक्युलर राष्ट्र-राज्य के सपने को साकार करने की बौद्धिक जिम्मेदारी अंग्रेजी की है। हिन्दीपट्टी के भीतर आत्महीनता की ग्रंथि तैयार करने वाला यह तर्क जिस त्वरा के साथ पहले कहा जाता है आज भी उसी त्वरा के साथ दोहराया जाता है। फर्क इतना आया है कि पहले अंग्रेजी अभिजन के पास ऐसा कहने के बावजूद एक नैतिक संकोच में पड़ा रहता था मगर अब वह संकोच भी गायब हो गया है।

यकीन नहीं आता तो थोड़ा पीछे जायें-इस साल के अप्रैल महीने में। उस वक्त पार्टियां चुनावी मेनिफेस्टो निकाल रही थीं। समाजवादी पार्टी के मेनिफेस्टो में चुपके से कहीं दो-चार पंक्तियों में इतना भर दर्ज था कि निजी स्कूलों में हिन्दी के चलन को बढ़ावा दिया जाएगा। इतनी सी बात का अंग्रेजी अखबारों में फसाना बन गया। द हिन्दू ने २० अप्रैल के दिन सीधे लंदन पुस्तक मेले से एक रिपोर्ट छापी । उसने हिन्दुस्तान में अधिकारवादी विकास-मॉडल के बड़े पुरस्कर्ता अमर्त्य सेन के हवाले से सिद्ध किया कि यह तो अंग्रेजी को भगाने और वंचितों को कमजोर करने वाली बात हो गई।

उस रिपोर्ट में सेन का तर्क था कि अगर ऐसी कोशिश होती है तो गैर-अंग्रेजी भाषी लोग राष्ट्र की मुख्यधारा से और अलग हो जाएंगे-''ऐसा करना समतावादी कदम हरगिज ना होगा। अगर ऐसा किया जाता है तो नतीजा उल्टा होगा यानी समाज के प्रभुवर्ग और वंचितों के बीच में दूरी बनी रहेगी क्योंकि हिन्दुस्तान में कारोबार, कानून, उद्योग और सार्वजनिक जीवन की भाषा अंग्रेजी है तो मुलायम सिंह यादव लोगों को इस भाषा का व्यवहार करने से रोक नहीं पाएंगे।'' अमर्त्य सेन के भारत प्रेम पर भरपूर यकीन करते हुए बस इतना ही भर सोचें कि आखिर वे भारत में अंग्रेजी को सशक्तीकरण की भाषा मानते हैं तो क्यों और देसी भाषाओं के बरक्स अंग्रेजी का चलन उन्हें सहज लगता है तो क्यों।

अमर्त्य सेन अंग्रेजी को सशक्तीकरण की भाषा मानते हैं तो इसलिए क्योंकि उन्हें अंग्रजी के भीतर इहलौकिक तर्कबुद्धि यानी रेशनाल्टी का भार वहन करने की क्षमता दिखाई देती है। उन्हें लगता है इहलौकिक तर्कबुद्धि पर आधारित विधि का शासन और फिर विधि के शासन पर आधारित लोकतंत्र सिर्फ अंग्रेजी भाषा में संभव है। देस की बाकी भाषाओं में या तो यह क्षमता ऐतिहासिक कारणों से नहीं है या फिर उस भाषा में सोचने वाले मानस की बनावट ही तर्कबुद्धि के विपरीत पड़ती है। ये बात खुद अमर्त्य सेन के लेखन में आयी है - खासकर हिन्दी पट्टी के संदर्भ में। बाबरी-मस्जिद विध्वंस के जमाने में उनका एक आलेख न्यूयार्क रिव्यू ऑफ बुक्स में द थ्रेटस् टू सेक्युलर इंडिया नाम से ८ अप्रैल १९९३ के दिन छपा।

हिन्दी-पट्टी पर बाबरी-मस्जिद को गिराने और देश भर में सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप मढ़ते हुए अमर्त्य सेन ने लिखा - "भारत में साक्षरता का प्रतिशत अब भी बड़ा नीचे है - हिन्दी पट्टी में तो और भी नीचे। हिन्दी पट्टी पूरे उत्तरभारत से लेकर मध्यभारत तक फैली हई है और इस पूरे क्षेत्र में हिन्दी ही प्रमुख भाषा है। इसी क्षेत्र की निरक्षरता के कारण पूरे देस में साक्षरता का औसत कहीं नीचे गिरता है। इसी क्षेत्र में अयोध्या के मंदिर-आंदोलन का सबसे ज्यादा जोर था और अयोध्या आंदलन के सबसे ज्यादा रंगरुट हिन्दी पट्टी कहलाने वाले उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान से आए। इन राज्यों में वयस्कों की साक्षरता भी बड़ी कम है। निरक्षरता का सीधा रिश्ता चाहे साप्रदायिकता से ना हो लेकिन लड़ाके तेवर वाले पोंगापंथ को बढ़ावा देने में इसकी बड़ी अहम भूमिका है।'' अगर इस उद्धरण को सावधानी से पढ़े तो साफ नजर आएगा कि सेन साहब हिन्दीपट्टी, हिन्दी और पोंगापंथ में सीधा रिश्ता देख रहे हैं और उसका कारण गिना रहे हैं हिन्दीपट्टी में मौजूद निरक्षरता को।

यहां पहले हिन्दीपट्टी पर अनपढ़ होने का आरोप लगाया गया है फिर कहा गया है अनपढ़ों पर सांप्रदायिकता का असर ज्यादा होता है। विश्लेषण में ये बात भी कहीं छुपी हुई है कि अनपढ़ होने का एक कारण हिन्दीपट्टी में हिन्दी का मौजूद होना है यानी वह भाषा जिसके भीतर अभी तक वैज्ञानिक तर्कबुद्धि का भार वहन करने की क्षमता नहीं है। अपने अपने दफ्तरों में बैठे मध्यवर्ग की सांप्रदायिकता से इंकार ऐसा कि उसका जिक्र भी ना आए और खेतों में खटने वाले गंवई अनपढ़ों से हिकारत ऐसी कि उन्हें देश की बड़ी बुराइयों में से एक का पूरा जिम्मेदार ठहरा दिया जाय ---विद्वता की ऐसी अदा ऐसी भी होती है। २००४ के चुनावों ने साबित किया जिस हिन्दीपट्टी के अनपढ़ों पर पोंगापंथ का सेन साहब आरोप लगा रहे हैं उन्हीं अनपढ़ों ने शाइनिंग इंडिया का नारा देने वालों से कहा कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती।

अव्वल तो समाजवादी पार्टी के मेनिफेस्टो में अंग्रेजी-विरोध की कोई बात ही नहीं कही गई थी। उसमें अंग्रेजी स्कूलों पर तनिक लगाम कसने की बात थी और अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने की बात कहने वाले के लिए एक ललकार का भाव था। दरअसल मेनिफेस्टो देश के सीमांत और छोटे किसान परिवारों की बात कर रहा था जिनकी तादाद कुल खेतिहर आबादी में अस्सी फीसदी है। यह आबादी देसी भाषा में बोलती और सोचती है और आंकड़े कहते हैं कि कुल खेतिहर जमीन में से महज ४६ फीसद की मल्कियत होने के बावजूद छोटे और सीमांत तबके के किसान जिसमें सर्वाधिक संख्या दलित और पिछड़ी जाति के किसानों की है, प्रति हेक्टेयर उपज के मोल के हिसाब से आज भी बड़े किसानों की अपेक्षा कहीं ज्यादा उपजाते हैं और अपने उसी मेहनत और परंपरित ज्ञान से उपजाते हैं जिसे ज्ञान की नयी अर्थव्यवस्था के पैरोकार पोंगापंथ कहते हैं।

देश की खेतिहर आबादी का यह तबका अंग्रेजी नहीं लिखता-पढ़ता। अगर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के नवीनतम आंकड़ों को आधार मानें तो देश के सीमांत किसानों में साक्षरता की दर ४८ फीसद है और छोटे किसानों में ५५ फीसदी। जाहिर है साक्षरता की इस दर के साथ यह किसान आबादी देश की अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा यानी उद्योग और सेवाक्षेत्र में मजदूर बनकर तो हिस्सेदारी कर सकती है मगर अधिकारी या मालिक बनकर नहीं क्योंकि खुद अमर्त्य सेन के हिसाब से इन क्षेत्रों की भाषा अंग्रेजी है। क्या अमर्त्य सेन का ध्यान इस बात की तरफ गया है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में जिस खेती का हिस्सा १९५५ में आधे से अधिक यानी ५६ फीसदी था वही हिस्सा आज २० फीसद से भी कम क्यों है। क्या उनका ध्यान इस बात पर गया है कि भूमंडलीकरण के बाद के सालों में बेतहाशा बढा सेवा-क्षेत्र जिसका सीधा रिश्ता कंप्यूटर और अंग्रेजी से है, आज देश की प्रगति का इंजिन कहला रहा है मगर इस इंजिन के पीछे लगे डिब्बे पर देश की कामगार आबादी का महज २२ फीसदी हिस्सा ही सवार है और सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी के घटने के बावजूद देश में ६९ फीसदी लोग आजीविका के लिए सिर्फ खेती और उससे जुड़े कामों पर निर्भर हैं।

भूमंडलीकरण के बाद खेती और किसान को खत्म करने की प्रक्रिया और तेज हुई है और जिन सालों में देश से खेती को खत्म करने का सिलसिला तेज हुआ है उन्हीं सालों में देसी भाषाओं को खत्म करने, उन्हें अवैज्ञानिक करार देने अथवा उनको विद्रूप करने का सिलसिला भी तेज हुआ है और इस बार बगैर किसी दोषभावना के साथ।

(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ से संबद्ध हैं। )
(इस लेख का एक संपादित अंश दैनिक भास्कर में १४ सितम्बर २००९ को प्रकाशित हुआ.)

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