१) समाज के बारे में सीखने-समझने के साधन और स्रोत अनेक हैं - प्रत्यक्ष अनुभव, वाचिक परम्परा, लिखित संसार, दृश्य-श्रव्य माध्यम से लेकर सायबर दुनिया तक। सबसे पहले लिखित ज्ञान के संसार की बात करें। आपकी नज़र में खास तौर से पुस्तक संसार की स्थिति क्या है? इसकी समस्याएं क्या हैं?
२) क्या प्रत्यक्ष अनुभव और वाचिक परम्पराओं के स्रोत-साधनों का लिखित ज्ञान परम्परा, इलेक्ट्रानिक मध्यम और सायबर संसार में पर्याप्त संज्ञान लिया जाता है?
३) सायबर दुनिया (इंटरनेट) पर ज्ञान के निर्माण और फैलाव को लेकर आपको क्या संभावनाएं और क्या सीमाएं नजर आती हैं?
४) समाज विज्ञान की मौजूदा पाठ्य पुस्तकें या अन्य किताबों को लेकर आपके अनुभव कैसें हैं? क्या आप अपनी पढ़ी हुई किसी किताब के खास अनुभवों को बांटना चाहेंगे? एक अच्छी पुस्तक संस्कृति के निर्माण के लिए यह बहुत कारगर होगा।
५) एक अच्छी पुस्तक संस्कृति की संभावनाओं से जुडे कुछ अन्य सवाल भी हैं। ये सवाल किताबों के लेखन, प्रकाशन और विपरण की वस्तुस्थिति को समझने की मांग करते हैं। इन सवालों को लेकर आपके तजुर्बे क्या कहते हैं। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कडी है पुस्तकालय। पुस्तकालय नामक संस्था की खासकर कस्बाई परिवेश में क्या स्थिति है, इस पर जानकारी, अनुभवों और सुझावों की साझेदारी आगे के रास्ते खोलेगी।
६) समाज विज्ञानों का संस्थागत अध्ययन विश्वविद्यालयों के माध्यम से होता है। विभिन्न विश्वविद्यालयों या शिक्षा परिषदों में किसी समाज विज्ञान के पाठ्यक्रम के बारे में आपके अनुभव या विचार क्या हैं?
७) क्या इन संस्थानों (विश्वविद्यालयों या शिक्षा परिषदों) में समाज विज्ञानों के उद्देश्यों (पाठ्यचर्या या क्यूरीकुलम) को लेकर समय-समय पर सोच-विचार होता है? अगर नहीं होता है तो क्यूँ नहीं होता है और अगर होता है तो कैसा होता है?
८) देशज समाजों के संदर्भ को सामने रख कर देखें तो समाज विज्ञानों के 'सार्वभौमिकता' के दावे आपको कितने उचित लगते हैं? क्या स्थानीय संदर्भों की विविधता से संगति बैठाने के लिए समाज विज्ञानों में किसी बुनियादी फेरबदल या नवरचना की जरूरत है? किसी भी नवरचना के रास्ते में अड़चने और चुनौतियाँ क्या हैं? नवरचना की ऊर्जा और संभावनाएं आपको कहाँ दिखाई देती है?
इनमें से या इनके अलावा कौन से सवाल आपको ज्यादा जरूरी नजर आते हैं? इन सवालों के सामने आने पर आपके मन में क्या विचार उठते हैं। आपके अनुभवों और विचारों से हम एक साझी समझ की और बढेंगे। देशी भाषायों में ज्ञान रचना के काम में धीरे-धीरे कदम आगे बढेंगे। इस पूरी प्रक्रिया में आपका सहभाग-सहकार जरूरी है।
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: हिंदी, समाज-विज्ञान, ज्ञान-मीमांसा, पुस्तक, शिक्षाशास्त्र,
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें