सोमवार, 14 सितंबर 2009

देशी भाषाओं में ज्ञान : प्रतिगामी या प्रगतिशील

आयो संतों! राष्ट्र को ज्ञान से भर दो.

पंकज पुष्कर

आम धारणा है कि सरकारें नीतियाँ बनाती और बदलती हैं। लेकिन नीतियों के बनने-बिगड़ने में शासक वर्ग और ताकतवर समूहों की आपसी सहमति और उनके हितों का बडा हाथ होता है। सच है कि इन स्थितियों पर जनता का असर भी पड ता है लेकिन उसकी जागरूकता और सक्रियता के लगातार बढ ने के बाद ही। आइये इस तर्क को शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में चल रही नीतियों की रोशनी में जाँचते हैं।

२००४ में 'इंडिया शायनिंग' की खारिजी के बाद बनी कांग्रेस-नीत सरकार से उम्मीद थी कि ज्ञान के संसार में भी 'आम आदमी' के हक में पहलकदमी की जाएगी। स्कूली शिक्षा के मामले में 'राष्ट्रीय पाठ्‌यचर्या की रूपरेखा - २००५' जैसी महत्वपूर्ण पहल हुई भी। लेकिन इसी समय आर्थिक नवउदारवाद की लंबी होती छाया ने शिक्षा विमर्श को पूरी तरह से ढक लिया। अवसरों की समानता कायम करने की योजनाएं और समता के संवैधानिक मूल्य को नीतियों से ही बाहर करने की पटकथा साथ-साथ लिखी जातीं रही। ऐसी ही एक पटकथा राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय की देखरेख में लिखी। भारत के बहुपरती समाज पर गहरा असर डालने वाली इन सिफारिशों पर आम जानकारी और बहस होनी जरूरी है। ज्ञान आयोग भारत को 'ज्ञानवान समाज' और 'ज्ञान आधारित आर्थिक व्यवस्था' बनाए जाने की घोषणा करता है। इन घोषणाओं के दबे-छुपे मायने क्या हैं, यह जाहिर करने की जरूरत है।

''भारत को ज्ञानवान समाज बनाना है।'' यह मान्यता ही अपने आप में समस्यामूलक है। इस बिन्दु पर गहरा सोच-विचार अपेक्षित है। फिलहाल हम आयोग के भाषा से जुडे विचारों पर एक नजर डालते हैं। भाषाओं के लिहाज से राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशें बेहद मानीखेज हैं। भारतीय भाषाओं में ज्ञान-सृजन की एक बहुत बड़ी योजना 'नेशनल ट्रांसलेशन मिशन' का जन्म ज्ञान आयोग की ही एक सिफारिश के चलते हुआ। यह मिशन भारत की बाईस भाषाओं में छायी ज्ञानहीनता को अनुवाद की एक बडी पहल से दूर कर देना चाहता है। राष्ट्रीय अनुवाद मिशन एक संभावना है। यह भारतीय भाषाओं में ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में व्याप्त अवरोधों को दूर कर सकता है। इसके लिए जरूरी होगा कि प्रक्रिया के शुरू में ही अनुवाद से जुडे शिक्षाशास्त्रीय सवालों पर सम्यक सोच-विचार किया जाए। अभी तक के अनुभवों का ठीक से विश्लेषण किया जाना भी जरूरी होगा। इससे गलतियों के दोहराव से बचा जा सकेगा। इस चर्चा का विस्तार फिर कभी। पहले कुछ बुनियादी सवालों पर सोच-विचार करते हैं।

भारत में शिक्षा और ज्ञान निर्माण के बारे में कोई भी चर्चा समाज की बहुभाषिकता को ध्यान में रखे बिना नहीं हो सकती। भाषाओं का विशेष महत्व केवल ज्ञान के फैलने में ही नहीं वरन्‌ ज्ञान के फलने-फूलने और रूप-रंग तय होने में भी होता है। जब ज्ञान की रचना अधिक से अधिक भाषाओं से सीखते हुए - सोखते हुए होती है तो इससे विभिन्न भाषा-भाषी समाजो का ही नहीं बल्कि ज्ञान का भी भला होता है। अगर ज्ञान की रचना केवल एक-दो भाषाओं के स्रोत और साधनों का इस्तेमाल करके की जाए तो ज्ञान कितना एकांगी, इकतरफा और सतही होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। 'ज्ञान की दुनिया' और 'काम की दुनिया' में विभाजन न हो इसके लिए भी अपरिहार्य है कि ज्ञान निर्माण बहुभाषी परिवेश में हो। जरूरी है कि भाषाओं के बीच समता और साझेदारी को बढावा मिले, बहुभाषिकता का सम्मान हो और किसी एक भाषा के नाम पर दूसरी भाषाओं को बलि पर न चढाया जाए।

ज्ञान आयोग इस मामले में वही करता है जो भारत के बहुभाषी समाज और बहुवचनी संस्कृति के लिए सबसे घातक हो सकता है। आयोग ने नव-उदारवादी अर्थशास्त्र से तर्क उधार लेकर सुझाया है कि देश भर का भला अंग्रेजी पढने-बोलने में है। इस तर्क में यह अनकहा और छुपा है कि देशी भाषाओं के साथ पिछडापन चिपका है। ज्ञान देशी भाषाओं में नहीं पनप सकता। 'अंग्रेजी विकास का पासपोर्ट है' आदि-आदि। परजीवी मानस इससे अलग किसी संभावना पर विचार ही नहीं करता। अगर नज़र तंग हो तो यह कल्पना में ही नहीं आता कि भारत जैसे महादेश में नव-उदारवादी अर्थशास्त्र का भी उसी तरह कायापलट और अर्थ-विस्तार हो सकता है जिस तरह उदारवादी लोकतंत्र का हुआ है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग विकास की जरूरतों के नाम पर अंग्रेजी की वकालत करते समय ज्ञान के आयात पर टिके मानस की ही नुमाइंदगी करता है।

आयोग बाकी भाषाओं की उपेक्षा और अंग्रेजी के वर्चस्व के बेहद समस्यामूलक मामले पर सपाट बयान रखता है कि "अंग्रेजी भाषा पर मजबूत पकड उच्च शिक्षा, रोजगार की संभावनाओं और सामाजिक अवसरों की सुलभता तय करने में सबसे महत्वपूर्ण है"। बाकी भाषाओं की कीमत पर अंग्रेजी भाषा को उच्च शिक्षा, रोजगार और सामाजिक अवसर तय करने में ज्यादा महत्व मिलना ज्ञान आयोग के लिए चिंता, चिंतन या विश्लेषण का विषय क्यों नहीं बनता? क्या यह स्थिति संविधान की भावना के संगत है? क्या भारतीय लोकतंत्र का जनादेश इस स्थिति के पक्ष में नजर आता है?

ज्ञान आयोग उच्चशिक्षा में अंग्रेजी की उपस्थिति को महात्म्य की सीमा तक खींच कर ले जाता है। ज्ञान आयोग की दो मासूम सी टिप्पणियाँ देखें। पहली 'उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अधिकतर पढाई अंग्रेजी में होती है' तथा दूसरी 'अधिकतर विषयों में पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं सिर्पफ अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती हैं'। पहली टिप्पणी सच्चाई से परे है और दूसरी टिप्पणी अन्यायपरक यथार्थ के एक परिणाम की ओर इशारा करती है, और वह भी बिना कारणों की पहचान किए। देशी भाषाओं में कुछ भी न होने की ज्ञान आयोग की सपाटबयानी ने सच्चाई की ओर मुंह तो किया है लेकिन इस सच्चाई के पीछे छुपे राजनीतिक, आर्थिक और ऐतिहासिक कारणों से जाने-अनजाने किनारा भी किया है। आखिर क्यों?

ऐसे अनेक जरूरी सवालों की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए ज्ञान आयोग भाषाओं के बीच कायम ऊँच-नीच को खत्म करने की जगह और बढ़ाने के उपाय सुझाता है। आयोग के शब्दों में "आज भी करीब एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी को पहली भाषा तो क्या दूसरी भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इन सच्चाइयों को रातों-रात नहीं बदला जा सकता। किंतु ... अब समय आ गया है कि हम देश के लोगों, आम लोगों को स्कूलों में भाषा के रूप में अंग्रेजी पढाएं।"

आंचलिक भाषाओं में उच्च शिक्षा के विस्तार के अपरिहार्य दायित्व से पीछे हटते हुए अंग्रेजी को ज्ञान का पर्याय बनाने की कोशिश शिक्षा में समानता के बुनियादी लक्ष्य से पीछा छुटाने की मुनादी है। उच्च शिक्षा आंचलिक भाषाओं और उनमें छुपे ज्ञान संसार को खारिज करते हुए भी आगे बढ सकती है। लेकिन इतिहास इसे अनगिन लघु संस्कृतियों को धीरे-धीरे खत्म करने के एक सत्तावादी 'सांस्कृतिक अभियान' के रूप में दर्ज करेगा। यह मानव सभ्यता के लिए प्रतिगामी कदम होगा, प्रगतिशील हरगिज नहीं।

(इस लेख का एक संपादित अंश दैनिक भास्कर में 16 सितम्बर २००९ को प्रकाशित हुआ.)

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