शनिवार, 19 सितंबर 2009

"भाषाओं में समाज विज्ञानों की उपस्थिति" दिल्ली विश्वविद्यालय में शुरूआती चर्चा

यह चिट्ठी खास तौर से उन साथियों को संबोधित है जो समाज विज्ञानों को जन-भाषाओं में रचने और जन-सापेक्ष बनाने के व्यापक सरोकार से जुड़े रहें हैं या जुड़ना चाहते हैं. समाज विज्ञान जन-सापेक्ष बनें इसके लिए यह देखना जरूरी है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञानों की उपस्थिति कैसी है. आपने अक्सर इन सवालों पर सोचा होगा कि भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञानों के विकास में चुनौतियाँ और संभावनाएं क्या हैं. इन सवालों पर बहुत सा चिंतन-मन्थन होता रहा है. बहुत सी प्रक्रियाएं चलती रही हैं. इसी दिशा में विचारों और अनुभवों की साझेदारी की एक शुरुआत दिल्ली विश्वविद्यालय (उत्तर परिसर) के राजनीति विज्ञान विभाग में 26-08-2009 को हुई.

डॉ मधुलिका बैनर्जी (दिविवि ) और योगेन्द्र यादव जी (लोकनीति-सीएसडीएस) की पहलकदमी पर हुई इस शुरूआती चर्चा में रविकान्त (सराय-सीएसडीएस), कमल नयन चौबे (दयाल सिंह कॉलेज), पंकज कुमार (दिविवि), तृप्ता (दिविवि), प्रवीण (जनेवि), मनीष कुमार (स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज), श्रुति मुरलीधरन (सीएसडीएस), चंदन श्रीवास्तव (सीएसडीएस) और पंकज पुष्कर ने भाग लिया. इस प्रक्रिया का वरिष्ठ राजनीतिक सुरेन्द्र मोहन, साहित्यकार प्रेमपाल शर्मा और राजकिशोर, समाज वैज्ञानिक गुरप्रीत महाजन और राजश्री दासगुप्ता (जनेवि), उज्जवल सिंह (दिविवि), रामशंकर (जबलपुर वि वि), शोधार्थी अनुरंजन कुमार (दिविवि) एवं अभय मिश्र (जनेवि) ने भी स्वागत किया और आगामी पहल कदमियों के बारे में जिज्ञासा दिखाई। डॉ प्रेम सिंह ने इस चर्चा को दिविवि के दक्षिण परिसर में बढ़ाने का प्रस्ताव रखा.

असल मैं इसी बैठक में साथी रविकांत ने एक ब्लॉग शुरू करने का प्रस्ताव रखा. रविकांत ने नेट पर हिंदी मैं काम करने से जुडी हर मदद के लिए भी खुद को पेश किया. मधुलिका जी ने इस बैठक का आयोजन वर्ष भर के लिए जर्मनी जाने से दो दिन पहले किया. उनका आग्रह था कि उनके जर्मनी प्रवास को गैर-हाजिरी न माना जाये. वे हर मुमकिन तरीके से इस बेहद जरूरी काम से जुडी रहेंगी. योगेन्द्र जी तो उन चंद लोगों में से एक हैं जिन्होंने इन सवालों की गंभीरता को सबसे पहले समझा है. इस पहल में उठने वाले कई सवालों की जड़े उनके उस व्याख्यान तक जाती हैं जो उन्होंने हंस की एक गोष्ठी में उठाये थे.

चर्चा की शुरुआत एक प्रस्ताव के साथ हुई. इस प्रस्ताव में कहा गया कि पारंपरिक रूप से भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञानों के विकास के सवाल को अनुवाद के दायरे में देखा जाता रहा है. अनुवाद आज भी एक जरूरी और प्रासंगिक उपाय है. लेकिन, एक ओर अनुवाद के आज तक के अनुभवों से सीखने की जरूरत भी है और साथ ही इस सवाल को भी जांचने की जरूरत है कि अनुवाद की प्रचलित दृष्टी और परम्पराएँ किस सीमा तक "ज्ञान की राजनीति" से प्रभावित रही है. क्यों न पुराने अनुभवों और प्रचलित विमर्श से सीखते हुए ज्ञान-निर्माण में अनुवाद की भूमिका को नए सिरे से तलाशने की कोशिश की जाये.

इस लिहाज से भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञानों के विकास के सवालों को ज्ञान-मीमांसा और शिक्षाशास्त्र की बहसों की रोशनी में देखने की जरूरत है. हम देख सकतें हैं कि भारत जैसे देश की उच्च शिक्षा में पहली पीढी के पढाकुयों का आना कई दशकों तक चलते रहना है. यह नवागत पीढी भारतीय भाषाओं में सोचने-जीने वाली पीढी होगी. इन पीढियों का अनुभव संसार जिस समाज विज्ञान की मांग करेगा वह न केवल भारतीय भाषाओं में होगा बल्कि शिक्षाशास्त्र और ज्ञान की बनावट के हिसाब से कुछ फरक किस्म का होगा. बाजार का तर्क कहता है की मांग होने पर उत्पादन स्वयं होने लगता है, लेकिन यह तर्क उत्पादन की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं करता. यानी, जरूरत विचार-मंथन और पूर्व-तैयारी की है. उम्मीद है कि हम लोग इन चुनौतियों के समाधान खोजने में मददगार बनेंगे.

आप बताइए इन सवालों को आगे कैसे बढाया जाये. हम-ख्याल और हमराह साथियों तक इस कोशिश की खबर पहुंचाईयेगा या हमें उनका संपर्क सूत्र दीजियेगा.

पंकज पुष्कर
०९८६८९८४४४२

3 टिप्‍पणियां:

  1. समाज शास्त्र में भारतीय भाषाओं में क्या नया सोचा कहा जा रहा है, यह जानने समझने का मौका मिलना सराहनीय है. जहाँ तक मुझे पढ़ने का मौका मिला है, भारत में ब्राज़ील के पाउलो फ्रेरे जैसे जनसशक्तिकरण वाले विचारों को बहुत आगे तक विकसित किया गया है, और इन विषयों से जुड़े शौध के क्षेत्र में बहुत काम हुआ है. इन सब के बारे में आप के चिट्ठे से पढ़ने जानने का मौका मिलेगा, यह आशा है.

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  2. कोशिश आपकी परवान चढ़े !!

    वैसे ब्लॉग माध्यम में आपकी उपस्थिति से नए क्षेत्रों में इसका विस्तार ही माना जाना चाहिए !!

    राजनीति की घचर - पचर और साहित्य की ढोलक की थाप से परे आपकी ब्लॉग उपस्थति पर मन मुदित हुआ!!

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